2025 का साल बिहार की राजनीति के लिए बेहद अहम साबित होने जा रहा है। चुनाव आयोग द्वारा विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा होते ही पूरा राज्य चुनावी माहौल में डूब गया है। गाँव के चौपालों से लेकर शहरों के कॉफी हाउस तक, हर जगह सिर्फ एक ही सवाल गूंज रहा है – कौन बनाएगा बिहार का भविष्य मुख्यमंत्री नीतीश कुमार फिर से सत्ता में लौटने की कोशिश में हैं, जबकि तेजस्वी यादव खुद को युवा नेतृत्व का चेहरा बना चुके हैं। दूसरी ओर, प्रशांत किशोर की नई पार्टी जन सुराज ने नीति आधारित राजनीति का नया प्रयोग शुरू कर दिया है। यह चुनाव अब केवल सत्ता की कुर्सी तक सीमित नहीं, बल्कि यह बिहार की राजनीतिक सोच और जनता की प्राथमिकताओं का भी इम्तिहान है।
चुनावी कार्यक्रम और राजनीतिक समीकरण
चुनाव आयोग (ECI) के अनुसार, बिहार विधानसभा चुनाव 2025 दो चरणों में संपन्न होंगे। पहले चरण में 6 नवम्बर को सीमांचल, मगध और कोसी क्षेत्र की 121 सीटों पर मतदान होगा, जबकि दूसरे चरण में 11 नवम्बर को तिरहुत, मिथिलांचल और शाहाबाद क्षेत्र की 122 सीटों पर वोट डाले जाएंगे। मतगणना 14 नवम्बर को सभी जिलों में एक साथ होगी। वर्तमान विधानसभा का कार्यकाल 22 नवम्बर को समाप्त हो रहा है, और उसी के बाद नई सरकार का गठन किया जाएगा।
राज्य की 243 सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय बन चुका है – एनडीए, महागठबंधन और जन सुराज पार्टी के बीच। एनडीए में भाजपा, जदयू, लोजपा (राम विलास) और हम पार्टी शामिल हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (जदयू) एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की दावेदारी कर रहे हैं। भाजपा के सम्राट चौधरी पिछड़े वर्गों पर फोकस कर रहे हैं, जबकि लोजपा के चिराग पासवान युवा वोटरों में लोकप्रिय हो रहे हैं। एनडीए का नारा है विकास और स्थिरता – यानी सुशासन के 20 साल को जनता के सामने पेश करना।
महागठबंधन या इंडिया ब्लॉक में राजद, कांग्रेस और वामदल साथ हैं। तेजस्वी यादव गठबंधन के चेहरा हैं और रोजगार, शिक्षा, सामाजिक न्याय को अपना मुख्य एजेंडा बना रहे हैं। कांग्रेस के अखिलेश सिंह और वामदलों के दीपंकर भट्टाचार्य क्षेत्रीय स्तर पर सक्रिय हैं। हालांकि, सीट बंटवारे और अंदरूनी असहमति इस गठबंधन की बड़ी चुनौती बनी हुई है।
तीसरा मोर्चा प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी है, जिसने सभी 243 सीटों पर प्रत्याशी उतारने का ऐलान किया है। प्रशांत किशोर राजनीति नहीं, नीति चाहिए के नारे के साथ जनता तक पहुँच रहे हैं। उनकी जन संवाद यात्रा ने गाँव-गाँव में उत्सुकता पैदा की है। युवा और शिक्षित वर्ग इस नए विकल्प को ध्यान से देख रहा है।
जातीय और क्षेत्रीय समीकरणों में नया बदलाव
बिहार की राजनीति जातीय संतुलन के इर्द-गिर्द घूमती रही है, लेकिन इस बार माहौल थोड़ा बदला हुआ दिख रहा है। यादव, कुर्मी, दलित और महादलित वर्गों का पारंपरिक गणित अब पहली बार वोट डालने वाले युवाओं और महिला मतदाताओं से चुनौती पा रहा है। नीतीश कुमार पिछड़े वर्गों में अपनी पकड़ बनाए रखने की रणनीति पर हैं, जबकि तेजस्वी यादव बेरोज़गारी और सामाजिक न्याय की बात कर रहे हैं। जन सुराज जातीय राजनीति से ऊपर उठकर नीति-आधारित राजनीति पर ज़ोर दे रही है।
महिलाएँ इस बार निर्णायक भूमिका में हैं। पिछले दो चुनावों में महिलाओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों से अधिक रहा है। इसीलिए सभी दल महिला मतदाताओं को रिझाने के लिए योजनाएँ पेश कर रहे हैं। नीतीश सरकार मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना और नारी शक्ति अभियान” का प्रचार कर रही है, जबकि राजद और कांग्रेस रोजगार, छात्रवृत्ति और समान अवसरों के वादों से महिला वर्ग को साधने की कोशिश में हैं।
क्षेत्रीय तौर पर देखा जाए तो पटना, भागलपुर, बक्सर, औरंगाबाद और नवादा में एनडीए मजबूत स्थिति में है। गया, सिवान, वैशाली और दरभंगा में महागठबंधन का प्रभाव है। मिथिलांचल और सीमांचल में जन सुराज का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है, खासकर शिक्षित वर्ग और पहली बार वोट डालने वाले युवाओं में। नालंदा अब भी नीतीश कुमार का गढ़ बना हुआ है, जबकि पूर्णिया और कटिहार में मुकाबला तीन-तरफ़ा हो गया है।
प्रमुख चुनावी मुद्दे – विकास, रोजगार और शिक्षा
बिहार का यह चुनाव पारंपरिक जातीय मुद्दों से हटकर विकास और रोज़गार पर केंद्रित होता दिख रहा है। बेरोज़गारी और प्रवासन इस बार सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा है। हर साल लाखों युवा रोज़गार की तलाश में दूसरे राज्यों की ओर पलायन करते हैं। एनडीए अपने सुशासन और विकास मॉडल की उपलब्धियाँ गिना रही है, जबकि विपक्ष इसे अधूरा विकास कह रहा है। राजद रोजगार देने के वादे कर रही है और युवाओं से सीधा संवाद बना रही है।
शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति भी चुनावी बहस के केंद्र में है। सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी और अस्पतालों की अव्यवस्था विपक्ष के निशाने पर हैं। सरकार का दावा है कि उसने बुनियादी ढांचे में सुधार किया है, पर विपक्ष का कहना है कि ज़मीन पर बदलाव अभी अधूरा है। महिलाएँ और ग्रामीण वर्ग स्थानीय उद्योगों, स्व-रोज़गार और सुरक्षा योजनाओं को लेकर अधिक जागरूक हैं।
साथ ही, जातीय आरक्षण, महिला सशक्तिकरण, भ्रष्टाचार, बिजली, सड़क और सिंचाई जैसी स्थानीय समस्याएँ हर दल के घोषणापत्र का हिस्सा बन रही हैं। जन सुराज पार्टी शिक्षा, प्रशासनिक सुधार और पारदर्शिता के मुद्दे पर चुनावी विमर्श को नई दिशा देने की कोशिश कर रही है।
मतदाता सूची विवाद और सोशल मीडिया का बढ़ता प्रभाव
चुनाव से पहले मतदाता सूची में लगभग 3.66 लाख नाम हटाए जाने का विवाद गहराता जा रहा है। विपक्ष ने इसे मतदाता दमन बताया है और आरोप लगाया है कि इससे विपक्षी वोट प्रभावित होंगे। चुनाव आयोग का कहना है कि यह सिर्फ स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसमें मृत या स्थानांतरित मतदाताओं के नाम हटाए गए हैं। आयोग ने यह भी कहा कि सभी पात्र नागरिकों को नाम जोड़ने का अवसर दिया गया था। अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच चुका है और चुनाव की पारदर्शिता पर सवाल उठ रहे हैं।
इस बार सोशल मीडिया चुनाव प्रचार का सबसे बड़ा मंच बन गया है। भाजपा का “अबकी बार, फिर NDA सरकार” फेसबुक और यूट्यूब पर ट्रेंड कर रहा है। राजद का युवा बिहार, तेजस्वी सरकार युवाओं में गूंज रहा है, जबकि जन सुराज का बदलाव का बिहार अभियान इंस्टाग्राम और रील्स पर खूब वायरल हो रहा है। वर्चुअल रैलियाँ, लाइव इंटरव्यू और डिजिटल संवाद अब चुनावी रणनीति का मुख्य हिस्सा बन चुके हैं। यह डिजिटल रणभूमि अब असल वोटिंग पैटर्न को भी प्रभावित कर रही है।
परिवर्तन की राह या स्थिरता की वापसी
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 राज्य के भविष्य की दिशा तय करेगा। यह चुनाव सिर्फ सत्ता परिवर्तन का नहीं, बल्कि राजनीतिक सोच के बदलाव का प्रतीक बन चुका है। एक ओर नीतीश कुमार का अनुभव और स्थिरता है, दूसरी ओर तेजस्वी यादव का युवा जोश और नई ऊर्जा। वहीं, प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी तीसरे विकल्प के रूप में नीति बनाम राजनीति की बहस को नया आयाम दे रही है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि त्रिकोणीय मुकाबले में किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत मिलना कठिन हो सकता है और गठबंधन सरकार की संभावना बनी रह सकती है। ग्रामीण बिहार में सड़क, बिजली, सिंचाई और रोजगार मुद्दे हैं, जबकि शहरी इलाकों में शिक्षा, उद्योग और प्रशासनिक पारदर्शिता पर ध्यान है।
14 नवम्बर की मतगणना सिर्फ परिणाम नहीं बताएगी, बल्कि यह भी स्पष्ट करेगी कि बिहार की जनता स्थिरता चाहती है या बदलाव। 2025 का चुनाव बिहार के अगले दशक की दिशा तय करेगा – क्या राज्य फिर पुराने नेतृत्व के साथ आगे बढ़ेगा या नई सोच और नीति की राह चुनेगा। यह लोकतंत्र की असली परीक्षा है, जहाँ जनता को तय करना है कि भविष्य अनुभव के हाथों में रहेगा या उम्मीदों के साथ नई शुरुआत होगी।